गाँव में खड़ा वो बरगद का पेड़
जाने क्यों
मन में कौतूहल पैदा करता है
सदियों पुराना है शायद
फिर भी पल-पल
जड़ों में लौट जाने की कवायद
ऊँचे-ऊँचे पर युवा पेड़ों के मध्य
जमीन से जुड़े रहना ही
उसकी दीर्घायु का रहस्य सा लगता है
वो बरगद का पेड़
जाने क्यों
मन में कौतूहल पैदा करता है
…
सुना है शहर में
इस वर्ष भी
साइबेरिया से ढेरों पक्षी
सर्दिया मानाने आये हैं
उचकते-फुदकते
एक झुण्ड में उड़ा करते
लगता है जैसे क्रिसमस के
किसी जलसे में शामिल होने आये हैं
शहर ने तो
अब अपना लिया है उनको
फिर भी न जाने क्यों
वे ना इस शहर को अपनाते हैं
हँसते-गाते, ख़ुशी मानते
अपने उन निष्ठुर घरों में
बार-बार लौट जाते हैं
…
मित्रो को महानगरो में ‘सेटल’ होते देख
मन में जागते है कुछ प्रश्न सदा
मैं हूँ किस शहर का?
मेरे नीड़ का स्थान कहाँ?
अवसरों की तलाश में भागता
लगता है जड़ो से अब कट गया हूँ
रह-रह लौटता है एक ही विचार
क्या कहीं फिर रोपित भी हुआ हूँ?
जड़ो से उभरना
और उभर के ऊपर उठना
ये तो जीवन चक्र है
पर जीवन-स्त्रोत मूल बिना
क्या आसमान छूना संभव है?
–
अभिनव
28 दिसम्बर 2011